एक बार फिर ब्लादिमीर पुतिन रूस के राष्ट्रपति बन गए हैं। वे पांचवीं बार
राष्ट्रपति बने हैं। जो बताता है कि दो वर्ष पूर्व यूक्रेन युद्ध शुरू करने
के चलते पूरी दुनिया के निशाने पर आने वाले पुतिन का अपने देश रूस में एकछत्र
राज्य है। वैसे खुफिया एजेंसी प्रमुख से लेकर राष्ट्रपति बनने तक पुतिन की
निरंकुश सत्ता लगातार परवान चढ़ती रही है।
पश्चिमी देशों की सुविधा के अनुरूप
लायी गई उदारीकरण व खुलेपन की वैश्विक नीतियों से सोवियत संघ के बिखराव के
बाद आहत रूसी राष्ट्रवाद को पुतिन ने अपने तरीके से सींचा। शासन, चुनाव तंत्र
और मीडिया पर वर्चस्व रखने वाले पुतिन ने अपनी सुविधा का लोकतंत्र गढ़ा। यही
वजह है कि पांचवीं बार राष्ट्रपति चुनाव लड़ रहे पुतिन का राष्ट्रपति बनना अटल
सत्य था। उनके सामने जो तीन उम्मीदवार थे, कहा जाता है कि उन्हें क्रेमलिन की
ओर से ही खड़ा किया गया था। वे पुतिन की तारीफ में कसीदे पढ़ते देखे गए।
वह
बात अलग है कि कुल वोट का 87 फीसदी हिस्सा मिलने के बाद पुतिन ने कहा कि रूसी
लोकतंत्र कई पश्चिमी देशों के लोकतंत्र से ज्यादा सशक्त है। लेकिन जैसा कि
पश्चिमी जगत आरोप लगाता रहा है कि पुतिन ने अपने तमाम विरोधियों को ठिकाने
लगा दिया था और वास्तविक युद्ध विरोधियों को चुनाव लड़ने की इजाजत तक नहीं दी
गई। वे उनके सशक्त विरोधी रहे एलेक्सी नवेलनी की हालिया संदिग्ध मौत को इसी
कड़ी का हिस्सा बताते हैं। नवेलनी समर्थकों ने रूस के शहरों व पश्चिमी देशों
में रूसी दूतावासों के बाहर विरोध स्वरूप प्रतीकात्मक रूप से मतदान किया।
उनका मानना रहा है कि रूस में एक भी प्रत्याशी ऐसा नहीं था, जिसकी
विश्वसनीयता मानी जा सके। वहीं पश्चिमी देश कुछ लोगों की गिरफ्तारी का भी आरोप
लगाते हुए कहते हैं कि चुनाव स्वतंत्र, पारदर्शी व निष्पक्ष नहीं रहा। दूसरी ओर
जर्मनी जहां इन चुनावों को सेंसरशिप के बीच छद्म चुनाव बता रहा है,वहीं
ब्रिटेन का आरोप है कि रूस द्वारा यूक्रेन के अधिकृत इलाकों में अवैधानिक
तरीके से चुनाव कराए गए। साम्यवादी व्यवस्था वाले देशों में पूंजीवाद का भय
दिखाकर राष्ट्रवाद की चाशनी में जिस तरह के लोकतंत्र को परिभाषित किया जा रहा
है, उसकी बानगी हमारे पड़ोसी देश चीन में भी नजर आती है।
जहां सत्ता से जुड़े
प्रतिष्ठानों व सेना पर अधिकार करके मनमाफिक कार्यकाल के लिये चुनावों का
प्रपंच रचा जाता है। सही मायनों में उस चुनाव का वास्तविक लोकंतत्र से कोई
लेना-देना नहीं होता। बल्किनिरंकुश सत्ता को तार्किक बनाने की कवायद में
लोकतंत्र का प्रहसन ही किया जाता है। दरअसल, निरंकुश सत्ताधीश सरकारी सूचना
माध्यमों पर वर्चस्व कायम कर और सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाकर सूचना के तमाम
स्वतंत्र स्रोतों का प्रवाह बंद कर देते हैं,जिससे वास्तविक सूचना व
लोकतांत्रिक आजादी से लोग वंचित रह जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यूक्रेन में
जारी दो साल लंबे युद्ध में रूस ने बड़ी कीमत न चुकायी हो, लेकिन सूचना
माध्यमों से युद्ध में बढ़त के तौर पर दर्शाया जा रहा है। यह विडंबना ही है
कि उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर निरंकुश सत्ताओं को पोषण का अनवरत सिलसिला
दुनिया के तमाम देशों में जारी रहा है।