हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने 40 वर्ष पुराने एक दुष्कर्म मामले में महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए स्पष्ट किया कि दुष्कर्म साबित करने के लिए पीड़िता के प्राइवेट पार्ट पर चोट के निशान होना आवश्यक नहीं है।
यह निर्णय न्यायमूर्ति संदीप मेहता और प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने सुनाया, जिसमें उन्होंने अभियुक्त की दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखा।
मामले का संक्षिप्त विवरण यह मामला 1984 का है, जब एक ट्यूशन शिक्षक पर अपनी छात्रा के साथ दुष्कर्म का आरोप लगाया गया था। अभियुक्त ने तर्क दिया कि पीड़िता के प्राइवेट पार्ट पर कोई चोट के निशान नहीं थे, इसलिए दुष्कर्म साबित नहीं हो सकता। साथ ही, उसने दावा किया कि पीड़िता की मां ने उस पर झूठा आरोप लगाया है।
सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने अभियुक्त के दोनों तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि मेडिकल साक्ष्यों में चोट के निशान न होने से अन्य विश्वसनीय साक्ष्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति वराले ने कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक दुष्कर्म मामले में पीड़िता के प्राइवेट पार्ट पर चोट के निशान हों; यह मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
न्याय में देरी पर चिंता यह मामला न्याय में देरी की गंभीर समस्या को भी उजागर करता है। 40 वर्षों के बाद न्यायालय का निर्णय पीड़िता और अभियुक्त दोनों के जीवन पर प्रभाव डालता है। इससे न्यायिक प्रणाली में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया गया है, ताकि भविष्य में ऐसे मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित हो सके।