गुरुवर सौरभ सागर जी महाराज कमलानगर में विराजमान हैं। उन्होंने अपने उद्बोधन
में श्रावकश्राविकाओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि ऋषिसंत जलता हुआ दीपक है,
गृहस्थ बुझता हुआ दीपक है, मन की बाती हजारों बुझे दीपकों में प्रकाश ला सकती
है। साधु- संतों के सानिध्य में आकर आप अपने क्लेशमय मनोभावों को निर्मलता दे
सकते हैं। संत और भगंवत जो जिन मन्दिर में हैं, उनमें क्या अंतर है।
इस पर
महाराज जी ने काफी फोकस किया। उन्होंने भगवंतों के बारे में कहा आप निर्धूम
अर्थात भीतर से कालिमा रहित है। आपने श्रावक के षट् आवश्यक कर्तव्यों के बारे
में बताया। उन्होंने इससंदर्भ में गुरु उपास्थि के बारे में बताया कि आप
साधु-संतों की उपासना करके स्वयं के पापों को क्षय करके मुक्ति का द्वार खोल
सकते हैं। सिखों में गुरुद्वारा का जिक्र आता है। अर्थात गुरु के सत्संग से
ही आप अपनी मुक्ति का द्वार खोल सकते हैं।
प्रवचन में कबीर दासजी के दोहे के
बारे में बताते हुए कहा, वृक्ष अपने फल नहीं खाते हैं, नदी सरोवर अपना पानी
नहीं पीते, जो अच्छेसच्चे व्यक्ति होते हैं वह दूसरों के उपकार करके ही अपनी
सम्पदा सम्पन्नता समझते हैं। साधु का जीवन भी परमार्थ के परोपकार के लिए ही
है। संत भगवंत तो ट्रांसफॉर्मर की तरह से है, आप जितना चाहे वोल्टेज लेकर
अपना आत्म कल्याण कर सकते हैं, यह श्रद्धालुओं की श्रद्धा आस्था पर निर्भर
है। भक्त अपनी भक्ति से जितनी ऊर्जा चाहे गुरु से ले सकता ह